जलियांवाला हत्याकांड के वक्त पंजाब में डॉ सत्यपाल व डॉ किचलू लोगो के नेता बनकर उभरे थे व उन्हे जनता बेहद पसंद करती थी, वह भी लोगो की भलाई के लिए कार्य कर रहे थें।
पंजाब में उत्पन्न रोष के कारण पंजाब सरकार ने इनको दोषी ठहराया व इन्हे अज्ञात जगह पर भेज दिया। पंजाब की जनता डॉ सत्यपाल व डॉ किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में जलियांवाला बाग में इकठ्ठी हुई थी और इससे क्रोधित होकर जनरल डायर ने भीड पर गोली चलाने का आदेश दे दिया था।
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Image Source- Tribuneindia.com |
उस घटना के बाद डॉ सत्यपाल ने क्या कहा था आइये पढते है-
मुझे 10 तारीख को अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर माइल्स इर्विग का संदेश प्राप्त हुआ कि मैं प्रात: दस बजे उनसे उनके सरकारी आवास पर जाकर भेंट करूं।उस समय मैने रेलवें स्टेशन के प्लेटफार्म पर भारतीयों को भी जाने की अनुमति देने की मुहिम छेङ रखी थी।
इस कारण सोचा कि उसी संदर्भ में वार्ता की जानी होगी, लेकिन वहां पहुंचते ही मुझे और डॉ किचलू को गिरफ्तार कर सशस्त्र सैनिकों के साथ मोटर वाहन द्वारा धर्मशाला भिजवा दिया गया।
एक महीने तक हमें कैद में रखने के बाद सिंहासन के प्रति राजद्रोह के जुर्म में बंदी बनाया गया व लाहौर की एक अदालत में पेश किया गया. तीन जून को मार्शल के सामने हाजिर किया गया । इस बीच यातनाऐ देने का कोई भी अवसर छोङा नही गया।
एक संकरी कोठरी में हमें रखा गया, वही पर सोना होता था और वही पर नित्य-कर्म भी करने होते थे।
मैने प्लेटफार्म पर प्रवेश देने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन किया था। जिसके बदले में मुझ पर लूटमार, आग लगाने, हत्या करने, डकैती डालने, माहौल खराब करने, षडयंत्र रचने, गोरो के खिलाफ जनभावना फैलाने व मुकुट के विरूद्ध की धाराऐ लगाकर मुकदमें कायम किए गयें।
पुलिस सर्वेसर्वा बन चुकी थी व उनके डर से सच्चाई की पैरवी करने वाला निडर शख्स कोई भी नहीं था। क्रूर गोरो के व्यवहार से स्तब्ध व भयभीत लोगो नें उनके खिलाफ गवाही नही दी। पूर्व में गवाहो को जिस प्रकार प्रताडित किया गया उससे भी वे सदमें में थे. अंतत: निर्णय का दिन आया और 7 लोगो को आजन्म कारावास, कुछ को रिहाई, दो को तीन वर्ष की कठोर कैद व डॉ बशीर को फांसी की सजा दी गई।
जेल में रहते हुए ही मैनें हंटर कमेंटी के बारे में सुना था और बताया गया कि न्यायिक कार्यवाही में सवाल-जवाब नही किये जाने थे और न ही वरिष्ठ नागरिक उपस्थित किए जाने थे। मैंने सरकारी रूख देखकर तय किया था कि खामोश रहना ही उचित होगा।
हम सभी गतिविधियां सार्वजनिक रूप से करते रहे थे। सभाएं भी खुलेआम ही होती थी। अत: बगावत का षडयंत्र रचा जाता तो उसे गुपचुप ही रचा जाता था। यह बगावत तो प्रशासकों के कुटिल गिमाग की उपज थी, ताकि बगावत का हौव्वा खङा कर लोगो को प्रताङित कर सकें।
मै और मेरे साथ के सभी लोग कानून में विश्वास करने वाले लोग थें। अंग्रेजों का यह कहना कि हिंदुस्तान पर आक्रमण करने के लिए अफगानिस्तान के अमीर के पास न्यौता भेजा गया था, कतई वागियात बात थी।
जो ब्रिटिश प्राशासन जर्मनी के छक्के छुङा रहा था, उस प्रशासन को किसी अफगानिस्तानी अमीर से भला किस प्रकार डराया जा सकता था? यदि अफगानिस्तान से युद्ध छिडा था तो वह अंग्रेजो से युद्ध छिडा था तो वह अफगानिस्तान की अफगान नीति के कारण छिङा था। उसमें हमारा कोई लेना-देना नही था।ब्रिटिश अत्याचाक की इंतहां को इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होने मेरे बुजुर्गवार पिता को, जिनसे प्रशासन को कोई खतरा नही था, उस पिता को जेल मे डालकर यातनाएं दी कि इस कारण बेटा टूट जायेगा।
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