Friday, October 9, 2020

इस वजह से गांधी 55 करोङ के लिए अनशन कर रहे थें, आप अधूरी बात जानते है।


जब भारतवासी आजाद भारत के सपने देख रहे थे व इसके लिए अपने प्राणों की बाजी लगा रहे थे, उस वक्त कुछ लोग ऐसे भी थे जो भारत का विभाजन करना चाहते थे।

 भारत का विभाजन करने का आधार, धार्मिक आधार बनाया गया और मुसलमानों के लिए पृथक देश पाकिस्तान की मांग की गई।

विभाजन में भारत की भूमि के दो टुकड़े, पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) हुए और करोड़ों लोगों को पलायन करना पड़ा, लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

 भारत का विभाजन भारतीय इतिहास की अप्रिय घटनाओं में से एक है,  वर्तमान पीढ़ी विभाजन के लिए गांधी को पूर्ण रूप से जिम्मेदार मानती है।

 आइए समझते हैं  कि विभाजन के वक्त देश की क्या परिस्थितियां थी और इसका जिम्मेदार कौन था?

विभाजन पर गांधी की राय:-

 

 गांधी हमेशा से ही भारत के विभाजन के खिलाफ थे , एक वक्त उन्होंने कहा था कि अगर भारत का विभाजन होगा तो उनकी लाश के ऊपर से होगा ।  फिर धीरे-धीरे उनकी राजनीति से दूरी बढ़ती गई और भारत का विभाजन करना पड़ा |

गांधी ने कभी भी भारत के विभाजन को स्वीकार नहीं किया।

 15 अगस्त को जब भारत आजादी का जश्न मना रहा था तब गांधीजी बंगाल में थे उन्होंने कहा था "मैं 15 अगस्त को उपवास करूंगा और मेरी प्रार्थना भी खासतौर पर उस दिन यही होगी की , हे ईश्वर ! हिंदुस्तान तो आजाद हुआ परंतु इसे बर्बाद ना करें"

10 अगस्त को बंगाल सरकार के कांग्रेस मंत्री ने उनसे पूछा कि, 15 अगस्त किस तरह मनाया जाए

इस पर गांधी ने कहा ,"सब लोग मर रहे हैं , जल रहे हैं , नंगे मर रहे हैं। ऐसे में कोई जश्न नहीं हो सकता , सिवाय उपवास, प्रार्थना और चरखें के समर्पण के।"

भारत सरकार के सूचना विभाग का एक अधिकारी जब उनसे 15 अगस्त के लिए संदेश लेने आया तो गांधी ने कहा ,"कि वह अंदर से सूख गए हैं , कुछ नहीं है उनके पास कहने को।"

इस पर अधिकारी ने कहा कि इस ऐतिहासिक अवसर पर अगर गांधी का कोई संदेश न छपा तो बहुत ही खराब होगा।

 गांधी ने जवाब दिया," है ही नहीं कोई मैसेज , होने दो खराब।"

 विभाजन के वक्त गांधी की मनोस्थिति बहुत ही दुखद थी वह आंतरिक उथल-पुथल से जूझ रहे थे।

 

विभाजन के वक्त गांधी और कांग्रेस:-

1 अप्रैल 1947 को प्रार्थना सभा में गांधी ने कहा था ," पर होना क्या है, मेरे कहने के मुताबिक तो कुछ होगा नहीं ! होगा वही जो कांग्रेस करेगी , मेरी चलती कहां है? मेरी चलती तो ना तो पंजाब हुआ होता ,ना बिहार होता, ना नोआखाली होता!

आज तो ना कांग्रेस मेरी मानती है, ना हिंदूना मुसलमान।

दरअसल गांधी विभाजन की ओर इशारा करके कह रहे थे कि उनके चाहने से कुछ नहीं होता। अब उनकी राजनीति में वह स्थित नहीं रही जो कभी हुआ करती थी।

 अब उनकी बात मानने वाला शायद कोई नहीं था , यह पहली बार नहीं था कि कांग्रेसी उनकी नहीं सुन रही थी। कांग्रेस संग अक्सर उनकी नहीं चलती थी।


विभाजन के वक्त गांधी के क्रियाकलाप:-

विभाजन के वक्त हिंदू और मुस्लिमों के बीच में दंगे अपनी चरम सीमा पर थे | देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक घटनाएं हो रही थी जिन्हें सुनकर व पढ़कर गांधी का हृदय व्याकुल हो जाता था।

16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग कें डायरेक्ट एक्शन डे के बाद बंगाल व देश भर में सांप्रदायिक घटनाएं होने लगी थी।

 गांधी इन घटनाओं को रोकने के लिए प्रयत्नरत थे।

 

 वह मानते थे कि अगर वह बिहार व नोआखली में सांप्रदायिक उन्माद खत्म कर, लोगों में भाईचारा स्थापित कर देते हैं ,तो देश में शांति आ जाएगी।

नोआखली में हो रही हिंसा को गांधी रोकने का भरसक प्रयास कर रहे थे, उन्होंने 1946 में नोआखली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के प्रमुख आयोजक मियां गुलाम सरदार और उनके सबसे खास सहयोगी, कासिम अली को सांप्रदायिक शांति बनाए रखने के लिए मना लिया था।

 

गांधी जब नोआखली में शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे तों उस वक्त बिहार में भी दंगे शुरू हो गए थे। जिसमें भारी संख्या में मुसलमानों को छति पहुंचाई जा रही थी।

उस वक्त बंगाल के नेताओं ने गांधी को बिहार जाकर वहां दंगों को शांत कराने के लिए कहा।

 

 उनके अनुसार वह नोआखली में हिंदुओं की सलामती के लिए आए थे , अब यहां शांति स्थापित हो चुकी है , तो उन्हें मुसलमानों को बचाने के लिए बिहार जाना चाहिए।

बंगाल में , हिंदू युवागांधी का विरोध कर रहें थें और कह रहे थे ," क्यों आए हो यहां ? तब क्यों नहीं आए जब हम मुसीबत में थे ? 16 अगस्त को जब डायरेक्ट एक्शन डे की मार पड़ी तब नहीं आए । अब जब मुस्लिम इलाकों में थोड़े से गड़बड़ हो गई है तब आप भागे चले गए हैं।"

इस पर गांधी का जवाब था

1946 में मुसलमानों ने जो किया वह सरासर गलत था। पर 1947 में 1946 का बदला लेने से क्या होगा।

 मैं समझता हूं कि मुझे आप लोगों की सेवा करनी है , आप को समझना चाहिए कि यहां सिर्फ मैं मुसलमानों के ही नहीं बल्कि हिंदू, मुसलमान और बाकी सबकी बराबर सेवा करने आया हूं।

 जो लोग इस तरह की हैवानियत पर उतर आए हैं वे अपने धर्म पर कालिख पोत रहे हैं।

13 सितंबर को प्रवचन देते हुए गांधी ने कहा था -

आप मुझसे कह सकते हैं, काफी हिंदू कहते हैं, गुस्से में आ जाते हैं,  लाल-लाल आंखें करते हैं, कि तू तो बंगाल में पडा रहा,  बिहार में पडा रहा,  पंजाब में आकर तो देख सही पंजाब में मुसलमानों ने हिंदुओं की क्या हालत की है। लड़कियों की क्या हालत हुई है।

 इस पर गांधी ने जवाब दिया

 मैं यह सब नहीं समझता हूं ऐसा तो है नहीं . लेकिन मैं उन दोनों चीजों को साथ साथ रखना चाहता हूं। वहां तो अत्याचार होता ही है, पर मेरा एक भाई पागल बने और सब को मार डाले , तो मैं भी उसके समान पागल बने और गुस्सा करूं ? यह कैसे हो सकता है?

 गांधी के अनुसार इस वहशीपन से निकलने का एक ही तरीका था कि, हिंदू या मुसलमान में से कोई एक वहशीपन छोड़ दे।

विभाजन को रोकने के लिए गांधी के प्रयास:-

गांधी जो कि विभाजन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों व कांग्रेस के विभाजन स्वीकार करने के बाद उन्हें भी विभाजन स्वीकार करना पड़ा।

 लेकिन मन से कभी वह विभाजन को स्वीकार न कर पाए।

 नोआखली में सांप्रदायिक घटनाओं को रोकने के लिए वह वहॉ चले गए और कई महीनों तक वहां का माहौल शांत करते रहे । उसके बाद जब बिहार में दंगों की आग फैली तो उन्हें बिहार आना पड़ाबिहार के बाद वह दिल्ली पहुंचे।

 

उस वक्त पंजाब व पाकिस्तान में बहुत ही हिंसात्मक घटनाएं हो रही थी, वह दिल्ली के बादफरवरी में, पाकिस्तान जाने वाले थे, ताकि वहां के अल्पसंख्यकों को बचा सके वहां शांति ला सकें व जनमानस में विभाजन को वापस लेने की बात डाल सके और विभाजन रद्द करवा सके।

लेकिन पाकिस्तान जाने से पहले वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि भारत में अल्पसंख्यक (मुसलमान) सुरक्षित हो जाए, ताकि वह पाकिस्तान पर दबाव बना सके कि भारत में मुसलमान सुरक्षित है, तो पाकिस्तान में हिंदू और सिख को भी सुरक्षित किया जाए।

 

भारत में शांति स्थापित करवा कर वह पाकिस्तानी मुसलमानों (जो भारत से पलायन कर वहां जा बसे थे ) को वापस आने का निमंत्रण देने वाले थे।

अगर उन्होंने यह साबित कर दिया कि भारत मुसलमानों के लिए सुरक्षित है, और अगर पाकिस्तान से मुसलमान वापस आकर भारत में पुनः बसने लगें,  तो विभाजन का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा और विभाजन स्वत: ही रद्द हो जाएगा, वह पाकिस्तान जाकर अल्पसंख्यकों (हिंदुओं और सिक्खों ) के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे।

18 सितंबर को उन्होंने कहा था

जो मुसलमान यहां से चले गए हैंउनको हम अभी नहीं लाएंगे। पुलिस या मिलिट्री के बदौलत  थोड़ी ही लाना है? जब हिंदू और सिख उनसे कहें कि आप हमारे अपने हैं, दोस्त हैं, आप आइए अपने घर में ।

आपको कोई पुलिस या मिलिट्री की जरूरत नहीं है । तब हम सब भाई-भाई मिलकर रहेंगेहम तब उन्हें लाएंगे।

 मैं तो आप से कहता हूं कि पाकिस्तान में हमारा रास्ता साफ हो जाएगा , और एक नया जीवन पैदा हो जाएगा ।

पाकिस्तान में जाकर मैं उनको नहीं छोडूंगावहां के हिंदू और सिखों के लिए जाकर मरूंगा। मुझे तो अच्छा लगे कि मैं वहां मरूँ , मुझे तो यहां भी मरना अच्छा लगे है।

अगर यहां जो मैं कहता हूं नहीं हो सकता ,तो मुझे मरना ही है।

गांधी का अंतिम आमरण अनशन

गांधी हिंदू-मुस्लिम दंगों से अत्यंत दुखी हो गए थे। उनको शांति के लिए कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। अंत में उन्होंने आमरण अनशन का ऐलान किया।

 13 जनवरी से शुरू होने वाले आमरण अनशन से पहले कि उनकी कुछ बातें जों उन्होनें कही थी

मैं आशा करता हूं कि शांति तो मुझे मिलने वाली नहीं है, तो शांति से मुझे मरने दे ।

हिंदुस्तान का ,हिंदू धर्म का, सिख धर्म का और इस्लाम का बेबस बनकर , नाश होते हुए देखना ,निस्बत मृत्यु ,मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी ।

 अगर पाकिस्तान में दुनिया के सब धर्मों के लोगों को समान हक ना मिले , और उनका जानमाल सुरक्षित ना रहे , और भारत भी उनकी नकल करें।  तो दोनों का नाश निश्चित है . मेरा उपवास लोगों की आत्मा जागृत करने के लिए हैउन्हें मार डालने के लिए नहीं ।

मेरे उपवास की खबर सुनकर लोग दौड़ते हुए मेरे पास ना आए सब अपने आसपास का वातावरण सुधारने का प्रयत्न करें तो बस है ।

13 जनवरी को सुबह 9:30 बजे गांधीजी अनशन के लिए बैठ गए।

 गांधी सांप्रदायिक दंगों से विचलित होने के बावजूद उनका ध्यान निरंतर बिगड़ रही सांप्रदायिक मानसिकता पर केंद्रित था जिसका यह दंगे लक्षण भर थें।

उन्होंने कहा था "हम गुनहगार बन गए हैं , लेकिन कोई एक आदमी गुनहगार थोड़ी है ? हिंदू , मुस्लिमसिख तीनों गुनहगार है। अब तीनों गुनहगारों को दोस्त बनना है।"

अंग्रेजों ने जब सत्ता भारत और पाकिस्तान को सौंपी, तब 375 करोड रुपए की कुल नकदी थी।

 जिसमें पाकिस्तान को 75 करोड़ दिए जाने थे , 20 करोड पाकिस्तान को 14 अगस्त 1947 को ही दे दिए गए थे , बाकी के 55 करोड़ दिए जाने थे।

लेकिन फिर कश्मीर का मसला लड़ाई का रूप ले बैठा।

 

भारत सरकार ऐसे मौके पर 55 करोड़ देखकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं चाहती थी।  क्योंकि पाकिस्तान उस धन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ युद्ध में करता।

गांधी इस फैसले के खिलाफ थे, उनका कहना था कि जिस पैसे पर पाकिस्तान का जायज हक है, उसे उसको दे दिया जाए।  ऐसा करने से दोनों देशों के बीच तनाव कम होगा और तनाव का एक कारण मिट जाएगा।

 देश की गरिमा के हिसाब से उनका कहना था कि," जिसे अपने वचन का मूल्य नहीं वह तो कौड़ी का भी नहीं है।"

15 जनवरी को सुबह गांधी ने टब मैं लेटे-लेटे ही अपने सचिव प्यारेलाल को बोल कर एक वक्तव्य लिखवाया, जिसमें भारत सरकार से पाकिस्तान कों 55 करोड देने की बात कही।

 15 जनवरी की रात को अनशन के तीसरे दिन मंत्रिमंडल ने पाकिस्तान को 55 करोड़ दे देने का निर्णय किया।

 

17 जनवरी को गांधी की जांच कर रहे डॉक्टरों ने लोगों को चेतावनी दे दी थी कि उनकी जान बचाने के लिए आवश्यक कदम उठाया जाए।

17 जनवरी को गहमागहमी काफी बढ़ गई । सुबह 11:00 बजे के आसपास कुछ मौलाना आए और बताया कि शहर की हालत काफी सुधर गयें है।  शाम को कुछ व्यापारी आए और उन्होंने समझाया कि मुसलमानों ने जो व्यापार बंद कर दिया है, वह उसे फिर से चालू कर देंगे।

 

18 जनवरी को उपवास टूटा और एक 'शांति-प्रतिज्ञा' पर 100 से अधिक प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए और उनका नेतृत्व राजेंद्र प्रसाद ने किया।

 शांति-प्रतिज्ञा में लोगों ने यह प्रतिज्ञा की कि ,"हम यह घोषित करना चाहते हैंकि हमारी दिली ख्वाहिश है कि हिंदू, मुसलमान और सिख और दूसरे धर्म के सब माननें वाले फिर से आपस में मिलकर भाई भाई की तरह दिल्ली में रहे और हम उनसे (गांधी ) यह प्रतिज्ञा करते हैं, कि मुसलमानों की जान, धन और धर्म की हम रक्षा करेंगे और जिस तरह की घटनाएं यहां पहले हो गई है, उनको फिर से ना होने देंगे ।"

 

Friday, October 2, 2020

स्पेनिश फ्लू महामारी- एक ऐसी महामारी जिससें भारत में तकरीबन 2 करोङ मौते हुई थी।

दुनिया नें अभी तक बहुत सारी महामारियॉ देखी है जिसनें करोङो लोगो की जान ली है। तो इन्ही महामारियों में से एक महामारी ऐसी भी है जिसनें विश्व की एक तिहाई आबादी को प्रभावित किया और लगभग 5-10 करोङ लोगो की जान ली। 


इस महामारी को "द फॉरगॉटेन पैनडेमिक" यानी कि भूली जा चुकी महामारी के नाम सें भी जाना जाता है।

यहां हम बात कर रहें है स्पैनिश फ्लू की जिसनें 1918-1920 के बीच में 1/3 आबादी को प्रभावित किया गया था व यह महामारी इतनी खतरनाक थी कि इससें भारत में करीब 2 करोङ के आस-पास मौतें हुई थी।

स्पैनिश फ्लू की शुरूआत:-


स्पैनिश फ्लू की शुरूआत कहां सें हुई इसके कोई पुख्ता साक्ष्य नही है परन्तु वैज्ञानिक ऐसा मानते है कि इसकी शुरूआत सबसें पहलें संयुक्त राज्य अमेरिका सें हुई थी। बाद में जब संयुक्त राज्य अमेरिका सें लोग प्रथम विश्वयुद्ध के लिए यूरोप आयें तो यह बीमारी उनके साथ यूरोप तक आ गयी।धीरें-धीरें यह बीमारी पूरें यूरोप में फैली और उसकें बाद सैनिको के माध्यम सें यह पूरें विश्व मे फैल गयी।


भारत में भी इसकी शुरूआत बॉम्बें सें हुई जहां यह बीमारी सैनिको के द्वारा ही लायी गयी थी।

बाद में वैज्ञानिको द्वारा यह बताया गया कि यह वायरस बर्ड या सुअरों में पाया जानें वाला वायरस था लेकिन किन्ही कारणों सें यह मनुष्यों में प्रवेश कर गया और धीरें-धीरें यह
एक मनुष्य सें दूसरें मनुष्य में फैलनें लगा।

इस महामारी का नाम स्पैनिश फ्लू कैसें पङा?


यह बीमारी संयुक्त राज्य अमेरिका के सैनिको द्वारा यूरोप में लायी गयी थी। उस वक्त द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था जिसके कारण सैनिको को बंकरो में महीनों तक रहना पडता था व वे सैनिक व्यक्तिगत स्वच्छता पर ध्यान नही दे पातें थें। 


किसी भी बीमारी को फैलनें के लिए यह परिस्थितियॉ आदर्श होती है जिनकी वजह सें यह बीमारी बहुत तेजी सें सैनिको के बीच मे फैलनें लगी और फिर यूरोप के समस्त देशों में भी फैल गयी. बीमार सैनिको को छुट्टी देकर घर भेंज दिया जाता था जिसकें कारणों से यह बीमारी सैनिक अपनें साथ अपनें घर व देश तक ले गये और इस बीमारी नें महामारी का रूप ले लिया।

प्रथम विश्व युद्ध के वक्त रूस, फ्रांस व ब्रिटेन युद्ध में प्रतिभागी थें जिसकें कारण वह मीडिया में अपनें देशों के खिलाफ व अपनें सैनिको के खिलाफ नकारात्मक खबरों के प्रचार-प्रसार सें बचतें थें. वें कोई भी ऐसी खबर चलानें सें बचतें थें जो उनकें देश के नागरिकों को थोडा सा भी विचलित करें। इसलिए शुरूआत में यह बीमारी दुनिया की नजरो नें नही आ सकी।

लेकिन उस वक्त स्पेन एक ऐसा देश था जो कि प्रथम विश्व युद्ध में सामनें सें भाग नही ले रहा था जिसकी वजह सें वहॉ मीडिया सेंसरशिप नही थी। जब स्पेन में यह बीमारी फैलनें लगी तो उन्होने इस बीमारी के बारें में लिखना व बोलना चालू कर दिया जिसकें परिणामस्वरूप यह बीमारी दुनिया की नजरो में आयी। इसका नाम "स्पैनिश फ्लू" दिया गया।


स्पैनिश फ्लू सें स्पेन का राजा भी काफी प्रभावित हुआ था जिसकें कारण यह बीमारी और चर्चा में आयी थी।

स्पैनिश फ्लू कितनी खतरनाक बीमारी थी?


स्पैनिश फ्लू कितनी खतरनाक बीमारी थी इसका अंदाजा आप इसी बात सें लगा सकते है कि इसनें लगभग एक-तिहाई दुनिया को प्रभावित किया। बडे-बडे राजघरानों के लोग, उच्च अधिकारी भी इसकी चपेट में आने सें नही बच सकें।


एक अनुमान के मुताबिक इसमें कम सें कम 5 करोङ लोग मारें गयें थें जोकि द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई हिंसा सें कहीं ज्यादा थें।


भारत में इस महामारी सें तकरीबन 1-2 करोङ लोग मारें गयें थें। और अमेरिका में इससें 6,75,000 लोगो की मौतें हुई थी। भारत में ज्यादा मौतें होने का कारण भारत पर अंग्रेजो द्वारा शासन था जिन्होनें भारत में कभी स्वास्थय पर ध्यान नही दिया औऱ भारतीय लोगो को मरनें के लिए छोड दिया।

स्पैनिश फ्लू की सबसें खतरनाक बात यह थी कि यह 20-40 वर्ष के लोगो पर ज्यादा हमला करती थी जिसके कारण सबसें ज्यादा मौतें इसी आयु वर्ग के लोगो में होती थी। इसमें मृत्युदर लगभग 10% के आसपास थी।

स्पैनिश फ्लू सें हुई इतनी ज्यादा मौतें क्यूँ हुई?


जब स्पैनिश फ्लू दुनिया की नजरों में आया तब विश्व प्रथम विश्वयुद्ध लङ रहा था। जिसके कारण पहलें कुछ समय तक लोगो का ध्यान इस तरफ नही गया। बाद में जब यह बीमारी स्पेन में फैली तब पूरा विश्न इससें आगाह हुआ लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और करोडो लोग इससें प्रभावित हो चुकें थें।

स्पैनिश फ्लू पर काबू न पानें की एक वजह यह भी थी कि तब तक विज्ञान नें इतनी प्रगति नही की थी कि वह ऐसी महामारी सें लङ सकें। उस वक्त न तो एंटी बायोटिक्स का आविष्कार हुआ था और न ही इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी का। जिसके कारण वायरस को कभी देखा नही जा सका था।

बाद में 1931 में, Ernst Ruska और Max knoll द्वारा जब इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी का आविष्कार किया गया तब वायरस को पहली बार देखा गया था। पहली एंटीबायोटिक को खोज सन् 1928 ई में की गयी थी।


स्पैनिश फ्लू मनुष्य सें मनुष्य में फैल रही थी जिसकें कारण लोगो में यह बहुत तेजी सें फैला और इससें काफी लोगो की मौतें हुई।

स्पैनिश फ्लू सें बचनें के लिए क्या कदम उठाए गयें?


स्पैनिश फ्लू सें बचनें के लिए तब भी बहुत सारें शहरों में लॉक डाउन कर दिया गया था।
स्कूलों, सिनमाघरो व अन्य भीड-भाङ वाली जगहो को बंद कर दिया गया था। आर्मी कैंपो व स्कूलो को अस्पतालों में बदल दिया गया था व आम इंसानों को नर्सों को ट्रेनिग दी गयी थी ताकि वह मदद कर हालात को नियंत्रित कर सकें।


अमेरिका के कई शहरो में तो यहां तक सावधानी बरती जानें लगी थी कि यदि कोई व्यक्ति भीङ-भाङ वाली जगह पर खांसता या छींकत पाया जाता था तो उसके खिलाफ जुर्माना तक लगा दिया जाता था व उचित कार्यवाही की जाती थी।

स्पैनिश फ्लू से हम क्या सींख सकते है?


स्पैनिश फ्लू सें हम बहुत सारी सीख ले सकतें है जो कि हमें कोरोना वायरस सें लडनें में मदद कर सकती है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रथम विश्नयुद्ध के बाद एक परेड आयोजित होनी थी, जिसकें लिए डॉक्टरों नें यह सलाह दी की ऐसी परेड को स्थगित किया जायें अन्यथा बहुत भयंकर परिणाम देखनें को मिल सकते है। लेकिन अमेरिकी सैन्य अधिकारियों नें उनकी बात माननें ये यह कहते हुए मना कर दिया कि यह बहुत भव्य परेड है और इसको न करनें से सैनिको का अपमान होगा।

औऱ कुछ ही वक्त बाद बहुत ही भव्य परेड का आयोजन हुआ जिसमें हजारो लोग शामिल हुए।
उसी परेड के एक सप्ताह के अंदर, 2600-2700 मौतें हुई औऱ उनमें वही लोग शामिल थें जो कि परेड में शामिल हुए थें।






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Sunday, September 27, 2020

आजाद हिंद फौज का गठन- आजाद हिंद फौज ने हमें इस प्रकार आजादी दिलाई।

आजाद हिंद फौज का गठन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अध्यायों में सें एक है। आजाद हिंद फौज का गठन बहुत ही विषम परिस्थितियों में भारत के बाहर किया गया था, स्वयं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नें कहा था कि अंग्रेजो के भारत छोडनें के पीछे का कारण आजाद हिंद फौज व नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही थें।


तो आइयें समझते है कि आजाद हिंद फौज का गठन किन परिस्थितियों में किया गया और इसकें पीछें उद्देश्य क्या था?

आजाद हिंद फौज के गठन की जरूरत क्यों पडी?


आजाद हिंद फौज के गठन सें पहलें आपको भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि को समझना होगा। भारतीय इतिहास में गरम दल व नरम दल दो तरह के लोग सक्रिय थें।


गरम दल के लोग मानते थे कि आजादी सत्याग्रह करकें नही लायी जा सकती, इसके लिए सशस्त्र विद्रोह आवश्यक है।

1939 में जब सुभाषचंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनें तो यह बात गांधी जी को पसंद नही आयी क्योकि उनके द्वारा चुनें गये प्रत्य़ाशी पट्टाभि सीतारामैय्या को कांग्रेस नें नकार दिया था।  इस अधिवेशन के बाद गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस के बीच मतभेद बढनें लगे और अंत में सुभाष बाबू नें इस्तीफा देकर फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।

इस वक्त द्वितीय विश्वयुद्ध चालू हो गया था और सुभाष चंद्र समझते थे कि यह सबसे सही मौका है सशस्त्र क्रांति करनें का। क्योकि इस वक्त अंग्रेज भारत और जर्मनी दोनो के संयुक्त प्रहार को झेल नही पायेगे।
वही गांधी जी सोच रहे थे कि अंग्रेज तो भारत छोड कर ही चले जायेगे इसके लिए सशस्त्र क्रांति की जरूरत नही है।

सुभाष चंद्र बोस इन्ही कारणों से भारत छोड कर विदेश चलें गये और एक ऐसी सेना बनानें की तैयारी करनें लगे जो अंग्रेजो के खिलाफ सीधे युद्ध में उनको पराजित कर सकें।

आजाद हिंद फौज का गठन:-


जापान का सिंगापुर होनें के बाद भारतीय युद्ध बंदियो को भारतीय कमांडरो को सौंप दिया गया. फरवरी 1940 में 55 हजार युद्धबंदियो को कैप्टन मोहन सिंह को सौंपा गया, उस समय तकरीबन 15 हजार युद्धबंदियो को आजाद हिंद फौज सें अलग रखा गया था। बाद में जब उस कैदियों नें आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए स्वेच्छा से आवेदन किया तब उन्हे भी आजाद हिंद फौज में शामिल कर लिया गया।

इनमें से अधिकांश भारतीय सैनिक ऐसे थे तो अंग्रेजो द्वारा कियें जा रहे अत्याचारो और भेदभाव सें परेशान थें. इंडियन ब्रिटिश आर्मी में उस वक्त तकरीबन पच्चीस लाख सैनिक थें परन्तु सिर्फ एक भारतीय अधिकारी को ब्रिगेड की कमान सौपी गयी थी।

ब्रिटिश सैनिक व भारतीय सैनिक के वेतन का अनुपात 3:1 था व ब्रिटिश सैन्य अधिकारी व भारतीय सैन्य अधिकारी का वेतन अनुपात 2:1 था। इसकी वजह सें भारतीय सैनिको में भयंकर असंतोष व्याप्त था।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस को आजाद हिंद फौज की कमान:-


13 मई 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस टोकियो पहुँचे और वहां पर उनकी मुलाकात जापान के प्रधानमंत्री तोजो से हुई। तोजो सुभाषचंद्र सें बहुत प्रभावित हुए व भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को उन्होनें अपना समर्थन दिया।
इसके बाद भारतीय क्रांतिकारी रासबिहारी बोस नें नेताजी के सिंगापुर पहुँचने पर स्वागत किया व उन्हे आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी।


इस नेतृत्व को ग्रहण करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस नें कहा कि

 "अपनी फौजो का कुशलता से संचालन करनें के लिए मैं स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने का विचार सखता हूँ। इतस अस्थायी सरकार का कर्तव्य होगा कि वह भारत की स्वतंत्रता की लढाई सफलता-प्राप्ति तक लडती रहे।"


आजाद हिंद फौज का स्वतंत्रता का संकल्प:-


5 जुलाई 1943 को सुभाष चंद्र बोस नें सिंगापुर में एक बडे मैदान में आजाद हिंद फौज के अधिकारियों व सैनिको सें एक भव्य परेड व सलामी ली। अगले दिन जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो कुछ समय के लिए आजाद हिंद फौज की परेड देखनें आये व फौज सें बहुत अधिक प्रभावित हुए।


इसके तीन दिन बाद आजाद हिंद फौज को सम्बोधित करतें हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस नें कहा


"मुझे तीन लाख सैनिक और तीन करोड डॉलर चाहिए और  ऐसी महिलाओ का दल चाहिए जो मृत्यु सें न डरती हो और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नायिका रानी लक्ष्मीबाई जैसी तलवार चला सकनें में सक्षम हो."


इसके पश्चात आजाद हिंद फौज में नौजवानों का भर्ती के लिए शिविर कैंप खोले गये और युवाओ नें बढ-चढकर इसमें भाग लिया। केवल चार महीनो में आजाद हिंद फौज पूरी तरह सें तैयार हो चुकी थी।

इसके पश्चात 21 अक्टूबर 1943 को सुभाषचंद्र बोस भारत के इतिहास की पहली स्वतंत्र सरकार के गठन का ऐलान करनें के लिए एकत्र हुए।

आजाद हिंद सरकार की घोषणा:-


अक्टूबर 1943 में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के एक विराट सम्मेलन में नेताजी नें आजाद हिंद की अस्थायी सरकार की स्थापना की अहमियत पर रोशनी डाली।
आजाद हिंद सरकार में कुछ लोगो के पद निम्न प्रकार थें-
सुभाषचंद्र बोस (राज्य अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, युद्ध व विदेशमंत्री)
कैप्टन लक्ष्मी ( महिला संगठन)
एस.ए.अय्यर( प्रचार एवं प्रसारण)
रास बिहारी बोस ( उच्चतम परामर्शदाता)
इसी प्रकार अलग-अलग विभाग अलग-अलग लोगो को विभाजित कर दिये गयें।
संसार के सम्मुख नेताजी नें आजाद हिंद सरकार की घोषणा करते हुए कहा
ईश्वर के नाम पर मैं यह पावन शपथ लेता हूँ कि भारत और उसके 38 करोड निवासियो को स्वतंत्र कराऊँगा।



23 अक्टूबर की अधी रात को आजाद हिंद की अस्थायी सरकार नें ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. और जापान सरकार नें 23 अक्टूबर को ही नई सरकार को मान्यता देदी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और कैप्टन लक्ष्मी


24 अक्टूबर को बर्मा सरकार नें आजाद हिंद सरकार को मान्यता देदी। 30 को चीन, 21 नवंबर को थाईलैंड, 9 नवंबर को इटली व 27 दिसम्बर को क्रोएशिया नें आजाद हिंद सरकार को मान्यता दे दी।


आजाद हिंद सेंना के युद्ध की घोषणा करनें के बाद भारतीय सैनिको जो कि ब्रिटेन के लिए लड रहे थे उन पर काफी प्रभाव पडा और तकरीबन 12 हजार सैनिक नें अंग्रेजो के लडना छोड दिया।

नेताजी नें स्वयं 3 नवंबर 1943 को टोकियो से किये गये रेडियो प्रसारण में कहा था कि इंडियन ब्रिटिश आर्मी के 12 हजार सैनिक आजाद हिंद फौज का समर्थन कर रहै है।

इस घटना के बाद अंग्रेजो के मन में डर की भावना उत्पन्न हो गयी, असम, बंगाल और बिहार में तो उथल-पुथल सी मच गयी थी जिसके लिए माउंटबेटन व वेवल रणनीति बनानें पर जुटे हुए थें.

नेताजी 25 अक्टूबर 1943 के सिंगापुर रवाना हो गये व जनरल तोजो नें 10 नवंबर को अंडमान व निकोबार द्वीप का शासन भार आजाद हिंद सरकार को सौंपने की घोषणा कर दी। नेताजी नें दोनो द्वीपो का नामकरण शहीद और स्वराज किया।

ब्रिटेन व अमेरिका के खिलाफ युद्ध का ऐलान:-


आजाद हिंद सरकार के गठन के बाद 22-23 अक्टूबर को अमेरिका व ब्रिटेन के खिलाफ युद्द के घोषणा कर दी गयी और आजाद हिंद फौज युद्ध के लिए पूरी तरह सें तैयार हो गयी।


नेताजी सुभाष चंद्र बोस 29 दिसम्बर को अंडमान व निकोबार द्वीप समूह पहुंचे और जनसमुदाय के सामनें राष्ट्रीय ध्वज फहराया।


1944 के पहले सप्ताह में नेताजी अपना मुख्यालय सिंगापुर से भारत के नजदीक संगून में लेआये और भारतीय सीमा की और कूच की तैयरी चालू कर दी.


अराकान योमा के पास आजाद हिंद फौज की टक्कर दुशमन सें हुई और आजाद हिंद फौज दुश्मन सें कहीं बेहतर साबित हुई जिसके पश्चात आजाद हिंद फौज का मनोबल सातवें आसमान पर पहुंच गया।


आजाद हिंद फौज का पूर्वी भारत के लिए अभियान:-


नेताजी और आजाद हिंद फौज का अब एकमात्र मकसद भारत के पूर्वी क्षेत्र पर कब्जा करना था जिसकें लिए नेताजी नें अपना समस्त ध्यान पूर्वी भारत की विजय पर लगाया । अब वह अपना समस्त ध्यान बर्मा को अपना नया आक्रमण का अड्डा बनानें में लगा रहे थें.

इसी बीच नेताजी नें युद्ध फंड के लिए बर्मा में भारतीयों सें अपील की कि वह नेताजी फंड में आजाद हिंद फौज और भारत की आजादी के लिए बढ चढकर आगे आये और मदद करें।

बर्मा के नागरिकों नें आजाद हिंद फौज और भारत की स्वतंत्रता के लिए बहुत सहयोग किया। वह धन के साथ-साथ सैनिको की भी भर्तियॉ की गयी व महिलाओ नें भी आजाद हिंद फौज को बहुत अधिक स्नेह व सहयोग दिया।

रंगून के एक व्यक्ति हबीब नें अपनी जमीन, आभूषण औऱ सारी सम्पत्ति को बेचकर नेताजी और आजाद हिंद फौज को एक करोड रूपयें की मदद की। यह सब देखकर आजाद हिंद फौज का आत्मविश्वास कई गुना बढ रहा था।

रंगून की श्रीमती हेमराज नें अपनी समस्त लौकिक संपत्ति नेताजी को दे दी। उनके त्याग के कारण नेताजी नें उन्हें सेवक-ए-हिंद की उपाधि से सम्मानित किया था.

मार्च 1944 के मध्य में इंफाल पर आक्रमण कर दिया गया, इस युद्ध में जापान की तीन डिवीजनों व आजाद हिंद फौज नें भाग लिया था। आजाद हिंद फौज की कमान जनरल एम.जेड. किसानी नें सम्भाली थी। जापानियों व आजाद हिंद फौज की दृष्टि सें यह कार्यवाही काफी आक्रामक थी।

21 मार्च,1944 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस नें प्रेस कांफ्रेस कर यह ऐलान किया कि आजाद हिंद फौज भारत की पूर्वी छोर पर 18 मार्च को प्रवेश कर चुकी है और आजाद हिंद फौज का अगला लक्ष्य दिल्ली तक पहुँचना है।

अप्रैल के पहले हफ्ते में आजाद हिंद फौज नें कोहिमा में प्रवेश किया और अप्रैल के अंत में फौज इंफाल सें महज 10 मील की दूरी पर थी।

लेकिन दिल्ली के लिए रवाना होनें से पहलें ही बरसात का मौसम आ गया और आजाद हिंद फौज के लिए मुश्किलें और बढ गयी। चूंकि आजाद हिंद फौज और जापानी सेंना के लिए वायुमार्ग खुला हुआ नही था परन्तु ब्रिटिश व अमेरिका के लिए वह क्षेत्र वायुमार्ग के लिए काफी सुगम था।

जिसके कारण जापानियों व आजाद हिंद सेंना का धीरे-धीरें पीछें हटना पडा। कई-कई बार तो सैनिक शत्रुओ द्वारा घेर कर मार दियें जातें थें जिनकी खबर सुनकर नेताजी को बहुत ज्यादा दुख होता था।

नवंबर 1944 कें अंत तक स्थिति काफी बिगड गयी थी क्योकि ब्रिटिश सैनिक आगें बढ रहे थें और आसमान सें लगातार बमबारी हो रही थी।

आजाद हिंद फौज की दुखद हार:-


यदि आजाद हिंद फौज की हार कोहिमा और इंफाल में न हुई होती तो आजाद हिंद फौज बहुत ही आसानी  सें दिल्ली तक पहुँच जाती क्योकि बंगाल के व्यक्ति अंग्रेजो सें बहुत ही ज्यादा नाराज थें।

आजाद हिंद फौज की हार का कारण विषम मौसम परिस्थितियॉ, मूसलाधार वर्षा, अवरोध, खाद्य वस्तुओ की कमी और औषधियों का अभाव था। कई सैनिकों के हैजा, दस्त व मलेरिया जैसे रोग हो गयें थें तो कई सैनिक अन्य बीमारियों सें काल के गाल में समा गयें थें.

वें सैनिक शीघ्र ही स्वस्थ होना चाहतें थें और राईफल उठा कर फिर सें लडना चाहतें थें।

इस पराजय सें नेताजी हताश नही हुए और उन्होनें अपनें सैनिको से कहा कि हम इंफाल पर दोबारा आक्रमण करेगे। एक बार नही दस बार आक्रमण करेंगें । तुम सब लोग आजादी के लिए दीवानें हो जाओ और कर दो सब न्यौछावर।

सेना के अधिकारियों के बहुत समझानें के बाद नेताजी यह शर्त रख कर रंगून छोडनें को तैयार हुए कि जब तक वह रानी लक्ष्मीबाई रेंजीमेंट की सभी लडकियों को थाईलैंड, रेल व सडक परिवहन द्वारा नही भेज देते तब तक वह रंगून नही छोडेगे।

23 अप्रैल 1945 को यह सूचना मिली कि अंग्रेजी सेना मध्य बर्मा तक पहुंच गयी है और कुछ ही घंटो में वह बर्मा की राजधानी तक पहुंच जायेगी।

24 अप्रैल की रात को नेताजी का काफिला लारियों में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट की लडकियों को लेकर बैंकॉक की यात्रा पर निकला. जिसका उद्देश्य समस्त लडकियों को सुरक्षित रखना था। नेताजी अपनें काफिलें के साथ ही बनें रहें और उन्होनें उनके साथ ही जाना स्वीकार किया। वें तब तक लॉरी में नही बैठे जब तक उन्होनें यह सुनिश्चित नही कर लिया कि उनके हर काफिलें का सदस्य लॉरी में बैठ चुका है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बाद मेजर जनरल जमान कियानी आजाद हिंद फौज के नेता नियुक्त हुए और समस्त फौज उनकें आदेश का पालन करती थी।

उस वक्त आजाद हिंद फौज की स्थिति बडी कष्टमय थी, सैनिको को एक वक्त का ही भोजन मिलता था और उन्हे अपनी यात्रा रात के अंधेरे में ही करनी पडती थी। दिन में अंग्रेजी सैनिको सें बचनें के लिए वे जंगल में छिप जाते थें।

नेताजी नें 10 अगस्त 1945 को टेलीफोन पर सुना कि रूस नें जापान कें विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। 12 अगस्त 1945 को रात्रि में डॉ लक्षमियॉ और गणपति नें नेताजी को जापान द्वारा पराजय स्वीकार करनें का अचरज भरा समाचार सुनाया।

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए यह बहुत ही दुखद समाचार था क्योकि आजाद हिंद फौज जापान की मदद सें अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध लड रही थी और जापानियों के पराजय स्वीकार करनें के बाद आजाद हिंद फौज के सामनें एक गंभीर संकट आ खडा हुआ था।


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