नेताजी और गांधीजी के बीच में मतभेद जगजाहिर है, तो इसी बीच 6 जुलाई 1944 को रंगून से किए गए एक रेडियो प्रसारण में नेता जी ने कहा था," हे राष्ट्र पुरुष ! भारत के स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।"
वे गांधी जी ही थे जिन्होंने सुभाष के विरोध में पट्टाभि सीतारमैय्या को खड़ा किया परंतु इसमें सुभाष चंद्र बोस की जीत हुई। पट्टाभि की हार पर गांधी जी ने कहा था कि यह हार मेरी हार है। बदले में जब नेता जी ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की तब उन्होंने अपनी रेजिमेंट का नाम महात्मा गांधी व नेहरू के नाम पर रखा।
असल में यह वैचारिक मतभेद थे या सच में नापसंदी ही थी?
आइए समझते हैं -
गांधी जी और नेता जी जब पहली बार मिले
सुभाष बाबू जब आईसीएस की परीक्षा पास कर के देश सेवा करने के लिए जब भारत पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत हुआ। 16 जनवरी 1921 को सुभाष भारत लौटे, भारत पहुंचने पर सुभाष ने 'बाबू' का दर्जा प्राप्त कर लिया था। लोग अब उन्हें सुभाष बाबू बुलाने लगे थे, उनके आईसीएस पास करने के बाद पद छोड़ने की बात उस वक्त भारत में ऐसे फैली जैसे जंगल में आग।
सुभाष बाबू के भारत लौटने पर ब्रिटिश शासकों की कपट नीति से लोहा लेने का नैतिक साहस उन्हें सिर्फ महात्मा गांधी के चमत्कारी व्यक्तित्व में ही दिखाई दिया।
असहयोग आंदोलन के वक्त जोश और उत्साह का यह आलम था कि लोगों ने 'सर' और 'रायबहादुर' की उपाधि वापस कर दी. वकीलों ने वकालत, छात्रों ने स्कूल व किसानों ने मालगुजारी देनी बंद कर दी.
16 जुलाई 1921 को जब गांधीजी मुंबई पहुंचे तो सुभाष उनसें मिलनें जा पहुंचे, गांधी जी ने हर्ष के साथ सुभाष का स्वागत किया.
गांधी जी की सादगी देख सुभाष बाबू हतप्रभ रह गए और उन्हें विदेशी वस्त्रों में स्वयं गांधी जी से मिलने पर लज्जा के अनुभूति हुई. गांधीजी ने सुभाष को सुझाव दिया कि कलकत्ता जा कर देशबंधु चितरंजन दास से अवश्य मिले.
कांग्रेस में जब सुभाष बाबू नियुक्त हुए और उनके मतभेद गांधी और नेहरू से हुए
बंगाल के इतिहास में जितना निर्विरोध सहयोग सुभाष को मिला उतना किसी अन्य नेता को कभी नहीं मिला। 1927 के दिसंबर महीने में डॉक्टर एम अंसारी की अध्यक्षता में मद्रास में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ. जिसमें पूर्ण स्वाधीनता का लक्ष्य घोषित किया गया ।
सुभाष बाबू को अखिल भारतीय कांग्रेस का जनरल सेक्रेटरी नियुक्त किया गया व जवाहरलाल नेहरू और शोएब कुरैशी की भी नियुक्ति हुई। दिसंबर 1928 में कांग्रेस का 45 वां अधिवेशन हुआ, मोतीलाल नेहरू व गांधी जी ने उपनिवेश राज्य को स्वीकार कर लिया।
परंतु सुभाष बाबू को यह अच्छा नहीं लगा उन्होंने तो प्रारंभ से ही पूर्ण स्वराज का सपना देखा था। इसके बाद सुभाष बाबू ने संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत किया और कहा," मुझे खेद है कि मैं महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव में संशोधन कर रहा हूं यह इसलिए आवश्यक है कि भारत की जनता देश को पूर्ण स्वतंत्र कराने का प्रण ले चुकी है. "
सुभाष बाबू द्वारा प्रस्तुत इस संशोधन प्रस्ताव के साथ ही काग्रेस के दो गुट बट गए ।
एक गुट संशोधन प्रस्ताव का पक्षधर था व दूसरा विरोधी। आश्चर्यजनक बात यह है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू संशोधन प्रस्ताव के पक्ष में थे।
जब संशोधन प्रस्ताव सुभाष जी की कोशिशों के बाद भी गिर गया
एक वक्त यह स्थिति थी कि लग रहा था प्रस्ताव बहुमत के साथ पारित हो जाएगा, परंतु तभी प्रस्ताव के विरोधियों ने इसे ऐसे प्रचारित किया कि यदि महात्मा गांधी के उपनिवेश राज्य विधान के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो यह राजनीति से संन्यास ले लेंगे ।
इस अस्त्र के चलते ही शक्ति परीक्षण में सुभाष बाबू का संशोधन प्रस्ताव 1350 के मुकाबले 973 मतों से गिर गया । इसी बीच सुभाष बाबू व मोतीलाल नेहरू के बीच खुलकर मतभेद सामने आने लगे.
जब गांधीजी ने सुभाष के विरुद्ध अपना प्रत्याशी खड़ा किया
1 मई 1936 को कांग्रेस के राष्ट्रपति जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में पूरे भारत में सुभाष दिवस मनाया गया।
फरवरी 1938 में कांग्रेस का 51 वां अधिवेशन हरिपुरा गुजरात में हुआ, इस अधिवेशन के माध्यम से सुभाष का पुनः राजनीतिक अभिषेक हुआ और उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था।
ढाई मील लंबे रास्ते में राष्ट्रपति सुभाष का शानदार स्वागत हुआ वह 51 बलों द्वारा खींचे जाने वाले रथ सवार थे ।
अगले कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए फिर से चुनाव होने थे, काग्रेंस समितियां यह चाहती थे कि सुभाष ही अध्यक्ष पद पर बने रहे और यही देश की जनता भी चाहती थी ।
परंतु उस वक्त महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू को पद पर आसीन करना चाहते थे, नेहरू के मना करने के बाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद का नाम सुझाया गया, व उनके मना करने के बाद अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सीतारमैय्या का नाम बापू ने प्रस्तावित कर दिया।
सरदार वल्लभ भाई पटेल, जी बी कृपलानी, जमुना लाल बजाज, डॉ राजेंद्र प्रसाद, जयराम दास दौलत, शंकर राव देव ने गंभीर मंत्रणा के बाद यह संदेश प्रसारित किया।
"कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव अब तक निर्विरोध होता आया है और जब तक विशेष हालात ना हो इस बार के अध्यक्ष को पुनः अध्यक्ष के लिए चुनाव लड़ने की आज्ञा नहीं दी जाती .इन तथ्यों के परिपेक्ष में अब सुभाष को डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैय्या के मार्ग से हट जाना चाहिए।"
29 जनवरी 1939 को सुभाष की शानदार विजय से गांधी जैसे उदार नेता क्षुब्ध हो उठे। गांधी जी ने तो यहां तक कह दिया था कि डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैय्या की हार मेरी हार है।
इसके बाद सुभाष ने मई 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया वह फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की घोषणा 3 मई 1939 को की।
फारवर्ड ब्लाक का पहला अधिवेशन 22 जून 1939 को मुंबई में हुआ था ।
11 जुलाई 1939 को वर्धा में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में एक निर्णय लिया गया जिसमें सुभाष को 3 वर्ष के लिए कांग्रेस कार्यसमिति में किसी भी स्थान से चुनाव लड़े जाने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था ।
ब्रिटिश सरकार गांधी और नेहरू से कहीं ज्यादा सुभाष से आतंकित थी तभी उनकी सभाओं पर रोक लगा दी जाती थी।
जब नेताजी ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की तब उन्होंने गांधी और नेहरू के नाम पर ब्रिगेड बनाई .
23 अक्टूबर 1943 को जब आजाद हिंद सरकार बनी तब जापान तथा अन्य लगभग 11 देशों ने आजाद हिंद सरकार को मान्यता दे दी.
आजाद हिंद फौज में नेताजी ने नेहरू व गांधी ब्रिगेड की स्थापना की।
नेहरू व गांधी जी से मतभेद होने के बावजूद उन्होंने आजाद हिंद फौज की ब्रिगेडो के नाम उन पर रखें।
नेहरू ब्रिगेड गांधी ब्रिगेड व आजाद ब्रिगेड में से बेहतरीन पंक्तियों को चुनकर एक सुभाष ब्रिगेड बनाया गया था।
सुभाष बोस ने आजाद हिंद फौज को संबोधित करते हुए कहा था," ईश्वर के नाम पर मैं यह पावन शपथ लेता हूं कि भारत और उसके 38 करोड़ देशवासियों को स्वतंत्र करवाऊँगा, मैं सुभाष चंद्र बोस अपने जीवन के अंतिम सांस तक स्वतंत्रता की पवित्र लड़ाई को जारी रखूंगा, मैं सदैव भारत का सेवक रहूंगा और 38 करोड़ भारतीयों भाइयों और बहनों के कल्याण को अपना सर्वोच्च कर्तव्य समझूंगा।"
जब रंगून से रेडियो प्रसारण के वक्त नेता जी ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा और उनसे आशीर्वाद मांगा
नेता जी ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से महात्मा गांधी के नाम एक अपील जारी की और रेडियो प्रसारण में उनसे कहा ," मैं सचमुच यह मानता हूं कि ब्रिटिश सरकार भारत के स्वाधीनता की मांग कभी स्वीकार नहीं करेगी मैं इस बात का कायल हो चुका हूं कि यदि हमें आजादी चाहिए तो मैं खून का दरिया से गुजरने को तैयार रहना होगा अगर मुझे कोई भी उम्मीद होती कि इस युद्ध में एक और मौका आजादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिंदगी में मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं . मैंने जो भी किया है वह अपने देश के हित के लिए क्या है विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत के स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुंचने के लिए किया है "
गांधी के नाम अपने संदेश का समापन उन्होंने इन शब्दों में किया.
भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है आजाद हिंद फौज के सैनिक भारत की भूमि पर वीरता पूर्वक लड़ रहे हैं यह सशस्त्र संघर्ष आखिरी अंग्रेज को भारत से निकाल फेंकने और नई दिल्ली के वायसराय हाउस पर गर्वपूर्वक राष्ट्रीय तिरंगा लहराने तक चलता ही रहेगा हे राष्ट्र पुरुष भारत के स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद व शुभकामनाएं चाहते हैं "
सुभाष बाबू ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था तो वहीं गांधी जी ने सुभाष चंद्र बोस को देशभक्तों का देशभक्त कहा था गांधी जी ने अपने एक भाषण के दौरान कहा था कि यदि सुभाष अपने प्रयासों में सफल हो जाते हैं और भारत को आजादी दिला देते हैं तो उनकी पीठ थपथपा ने वाला सबसे पहला व्यक्ति में होऊँगा.
अत: इस आधार पर कहा जा सकता है कि नेताजी व गांधी जी कें बीच मतभेद थें, मनभेद नही ।
परन्तु भारत सरकार द्वारा कुछ साल पहलें नेताजी की फाइलें सार्वजनिक कियें जानें सें यें पता चला है कि आजादी कें बाद 20 साल नेताजी कें परिवार की जासूसी की जा रही थी।
जों सारें मतभेदो कों उजागर करता है।
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