Sunday, September 27, 2020

आजाद हिंद फौज का गठन- आजाद हिंद फौज ने हमें इस प्रकार आजादी दिलाई।

आजाद हिंद फौज का गठन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अध्यायों में सें एक है। आजाद हिंद फौज का गठन बहुत ही विषम परिस्थितियों में भारत के बाहर किया गया था, स्वयं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नें कहा था कि अंग्रेजो के भारत छोडनें के पीछे का कारण आजाद हिंद फौज व नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही थें।


तो आइयें समझते है कि आजाद हिंद फौज का गठन किन परिस्थितियों में किया गया और इसकें पीछें उद्देश्य क्या था?

आजाद हिंद फौज के गठन की जरूरत क्यों पडी?


आजाद हिंद फौज के गठन सें पहलें आपको भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि को समझना होगा। भारतीय इतिहास में गरम दल व नरम दल दो तरह के लोग सक्रिय थें।


गरम दल के लोग मानते थे कि आजादी सत्याग्रह करकें नही लायी जा सकती, इसके लिए सशस्त्र विद्रोह आवश्यक है।

1939 में जब सुभाषचंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनें तो यह बात गांधी जी को पसंद नही आयी क्योकि उनके द्वारा चुनें गये प्रत्य़ाशी पट्टाभि सीतारामैय्या को कांग्रेस नें नकार दिया था।  इस अधिवेशन के बाद गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस के बीच मतभेद बढनें लगे और अंत में सुभाष बाबू नें इस्तीफा देकर फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।

इस वक्त द्वितीय विश्वयुद्ध चालू हो गया था और सुभाष चंद्र समझते थे कि यह सबसे सही मौका है सशस्त्र क्रांति करनें का। क्योकि इस वक्त अंग्रेज भारत और जर्मनी दोनो के संयुक्त प्रहार को झेल नही पायेगे।
वही गांधी जी सोच रहे थे कि अंग्रेज तो भारत छोड कर ही चले जायेगे इसके लिए सशस्त्र क्रांति की जरूरत नही है।

सुभाष चंद्र बोस इन्ही कारणों से भारत छोड कर विदेश चलें गये और एक ऐसी सेना बनानें की तैयारी करनें लगे जो अंग्रेजो के खिलाफ सीधे युद्ध में उनको पराजित कर सकें।

आजाद हिंद फौज का गठन:-


जापान का सिंगापुर होनें के बाद भारतीय युद्ध बंदियो को भारतीय कमांडरो को सौंप दिया गया. फरवरी 1940 में 55 हजार युद्धबंदियो को कैप्टन मोहन सिंह को सौंपा गया, उस समय तकरीबन 15 हजार युद्धबंदियो को आजाद हिंद फौज सें अलग रखा गया था। बाद में जब उस कैदियों नें आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए स्वेच्छा से आवेदन किया तब उन्हे भी आजाद हिंद फौज में शामिल कर लिया गया।

इनमें से अधिकांश भारतीय सैनिक ऐसे थे तो अंग्रेजो द्वारा कियें जा रहे अत्याचारो और भेदभाव सें परेशान थें. इंडियन ब्रिटिश आर्मी में उस वक्त तकरीबन पच्चीस लाख सैनिक थें परन्तु सिर्फ एक भारतीय अधिकारी को ब्रिगेड की कमान सौपी गयी थी।

ब्रिटिश सैनिक व भारतीय सैनिक के वेतन का अनुपात 3:1 था व ब्रिटिश सैन्य अधिकारी व भारतीय सैन्य अधिकारी का वेतन अनुपात 2:1 था। इसकी वजह सें भारतीय सैनिको में भयंकर असंतोष व्याप्त था।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस को आजाद हिंद फौज की कमान:-


13 मई 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस टोकियो पहुँचे और वहां पर उनकी मुलाकात जापान के प्रधानमंत्री तोजो से हुई। तोजो सुभाषचंद्र सें बहुत प्रभावित हुए व भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को उन्होनें अपना समर्थन दिया।
इसके बाद भारतीय क्रांतिकारी रासबिहारी बोस नें नेताजी के सिंगापुर पहुँचने पर स्वागत किया व उन्हे आजाद हिंद फौज की कमान सौंप दी।


इस नेतृत्व को ग्रहण करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस नें कहा कि

 "अपनी फौजो का कुशलता से संचालन करनें के लिए मैं स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने का विचार सखता हूँ। इतस अस्थायी सरकार का कर्तव्य होगा कि वह भारत की स्वतंत्रता की लढाई सफलता-प्राप्ति तक लडती रहे।"


आजाद हिंद फौज का स्वतंत्रता का संकल्प:-


5 जुलाई 1943 को सुभाष चंद्र बोस नें सिंगापुर में एक बडे मैदान में आजाद हिंद फौज के अधिकारियों व सैनिको सें एक भव्य परेड व सलामी ली। अगले दिन जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो कुछ समय के लिए आजाद हिंद फौज की परेड देखनें आये व फौज सें बहुत अधिक प्रभावित हुए।


इसके तीन दिन बाद आजाद हिंद फौज को सम्बोधित करतें हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस नें कहा


"मुझे तीन लाख सैनिक और तीन करोड डॉलर चाहिए और  ऐसी महिलाओ का दल चाहिए जो मृत्यु सें न डरती हो और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नायिका रानी लक्ष्मीबाई जैसी तलवार चला सकनें में सक्षम हो."


इसके पश्चात आजाद हिंद फौज में नौजवानों का भर्ती के लिए शिविर कैंप खोले गये और युवाओ नें बढ-चढकर इसमें भाग लिया। केवल चार महीनो में आजाद हिंद फौज पूरी तरह सें तैयार हो चुकी थी।

इसके पश्चात 21 अक्टूबर 1943 को सुभाषचंद्र बोस भारत के इतिहास की पहली स्वतंत्र सरकार के गठन का ऐलान करनें के लिए एकत्र हुए।

आजाद हिंद सरकार की घोषणा:-


अक्टूबर 1943 में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के एक विराट सम्मेलन में नेताजी नें आजाद हिंद की अस्थायी सरकार की स्थापना की अहमियत पर रोशनी डाली।
आजाद हिंद सरकार में कुछ लोगो के पद निम्न प्रकार थें-
सुभाषचंद्र बोस (राज्य अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, युद्ध व विदेशमंत्री)
कैप्टन लक्ष्मी ( महिला संगठन)
एस.ए.अय्यर( प्रचार एवं प्रसारण)
रास बिहारी बोस ( उच्चतम परामर्शदाता)
इसी प्रकार अलग-अलग विभाग अलग-अलग लोगो को विभाजित कर दिये गयें।
संसार के सम्मुख नेताजी नें आजाद हिंद सरकार की घोषणा करते हुए कहा
ईश्वर के नाम पर मैं यह पावन शपथ लेता हूँ कि भारत और उसके 38 करोड निवासियो को स्वतंत्र कराऊँगा।



23 अक्टूबर की अधी रात को आजाद हिंद की अस्थायी सरकार नें ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी. और जापान सरकार नें 23 अक्टूबर को ही नई सरकार को मान्यता देदी।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और कैप्टन लक्ष्मी


24 अक्टूबर को बर्मा सरकार नें आजाद हिंद सरकार को मान्यता देदी। 30 को चीन, 21 नवंबर को थाईलैंड, 9 नवंबर को इटली व 27 दिसम्बर को क्रोएशिया नें आजाद हिंद सरकार को मान्यता दे दी।


आजाद हिंद सेंना के युद्ध की घोषणा करनें के बाद भारतीय सैनिको जो कि ब्रिटेन के लिए लड रहे थे उन पर काफी प्रभाव पडा और तकरीबन 12 हजार सैनिक नें अंग्रेजो के लडना छोड दिया।

नेताजी नें स्वयं 3 नवंबर 1943 को टोकियो से किये गये रेडियो प्रसारण में कहा था कि इंडियन ब्रिटिश आर्मी के 12 हजार सैनिक आजाद हिंद फौज का समर्थन कर रहै है।

इस घटना के बाद अंग्रेजो के मन में डर की भावना उत्पन्न हो गयी, असम, बंगाल और बिहार में तो उथल-पुथल सी मच गयी थी जिसके लिए माउंटबेटन व वेवल रणनीति बनानें पर जुटे हुए थें.

नेताजी 25 अक्टूबर 1943 के सिंगापुर रवाना हो गये व जनरल तोजो नें 10 नवंबर को अंडमान व निकोबार द्वीप का शासन भार आजाद हिंद सरकार को सौंपने की घोषणा कर दी। नेताजी नें दोनो द्वीपो का नामकरण शहीद और स्वराज किया।

ब्रिटेन व अमेरिका के खिलाफ युद्ध का ऐलान:-


आजाद हिंद सरकार के गठन के बाद 22-23 अक्टूबर को अमेरिका व ब्रिटेन के खिलाफ युद्द के घोषणा कर दी गयी और आजाद हिंद फौज युद्ध के लिए पूरी तरह सें तैयार हो गयी।


नेताजी सुभाष चंद्र बोस 29 दिसम्बर को अंडमान व निकोबार द्वीप समूह पहुंचे और जनसमुदाय के सामनें राष्ट्रीय ध्वज फहराया।


1944 के पहले सप्ताह में नेताजी अपना मुख्यालय सिंगापुर से भारत के नजदीक संगून में लेआये और भारतीय सीमा की और कूच की तैयरी चालू कर दी.


अराकान योमा के पास आजाद हिंद फौज की टक्कर दुशमन सें हुई और आजाद हिंद फौज दुश्मन सें कहीं बेहतर साबित हुई जिसके पश्चात आजाद हिंद फौज का मनोबल सातवें आसमान पर पहुंच गया।


आजाद हिंद फौज का पूर्वी भारत के लिए अभियान:-


नेताजी और आजाद हिंद फौज का अब एकमात्र मकसद भारत के पूर्वी क्षेत्र पर कब्जा करना था जिसकें लिए नेताजी नें अपना समस्त ध्यान पूर्वी भारत की विजय पर लगाया । अब वह अपना समस्त ध्यान बर्मा को अपना नया आक्रमण का अड्डा बनानें में लगा रहे थें.

इसी बीच नेताजी नें युद्ध फंड के लिए बर्मा में भारतीयों सें अपील की कि वह नेताजी फंड में आजाद हिंद फौज और भारत की आजादी के लिए बढ चढकर आगे आये और मदद करें।

बर्मा के नागरिकों नें आजाद हिंद फौज और भारत की स्वतंत्रता के लिए बहुत सहयोग किया। वह धन के साथ-साथ सैनिको की भी भर्तियॉ की गयी व महिलाओ नें भी आजाद हिंद फौज को बहुत अधिक स्नेह व सहयोग दिया।

रंगून के एक व्यक्ति हबीब नें अपनी जमीन, आभूषण औऱ सारी सम्पत्ति को बेचकर नेताजी और आजाद हिंद फौज को एक करोड रूपयें की मदद की। यह सब देखकर आजाद हिंद फौज का आत्मविश्वास कई गुना बढ रहा था।

रंगून की श्रीमती हेमराज नें अपनी समस्त लौकिक संपत्ति नेताजी को दे दी। उनके त्याग के कारण नेताजी नें उन्हें सेवक-ए-हिंद की उपाधि से सम्मानित किया था.

मार्च 1944 के मध्य में इंफाल पर आक्रमण कर दिया गया, इस युद्ध में जापान की तीन डिवीजनों व आजाद हिंद फौज नें भाग लिया था। आजाद हिंद फौज की कमान जनरल एम.जेड. किसानी नें सम्भाली थी। जापानियों व आजाद हिंद फौज की दृष्टि सें यह कार्यवाही काफी आक्रामक थी।

21 मार्च,1944 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस नें प्रेस कांफ्रेस कर यह ऐलान किया कि आजाद हिंद फौज भारत की पूर्वी छोर पर 18 मार्च को प्रवेश कर चुकी है और आजाद हिंद फौज का अगला लक्ष्य दिल्ली तक पहुँचना है।

अप्रैल के पहले हफ्ते में आजाद हिंद फौज नें कोहिमा में प्रवेश किया और अप्रैल के अंत में फौज इंफाल सें महज 10 मील की दूरी पर थी।

लेकिन दिल्ली के लिए रवाना होनें से पहलें ही बरसात का मौसम आ गया और आजाद हिंद फौज के लिए मुश्किलें और बढ गयी। चूंकि आजाद हिंद फौज और जापानी सेंना के लिए वायुमार्ग खुला हुआ नही था परन्तु ब्रिटिश व अमेरिका के लिए वह क्षेत्र वायुमार्ग के लिए काफी सुगम था।

जिसके कारण जापानियों व आजाद हिंद सेंना का धीरे-धीरें पीछें हटना पडा। कई-कई बार तो सैनिक शत्रुओ द्वारा घेर कर मार दियें जातें थें जिनकी खबर सुनकर नेताजी को बहुत ज्यादा दुख होता था।

नवंबर 1944 कें अंत तक स्थिति काफी बिगड गयी थी क्योकि ब्रिटिश सैनिक आगें बढ रहे थें और आसमान सें लगातार बमबारी हो रही थी।

आजाद हिंद फौज की दुखद हार:-


यदि आजाद हिंद फौज की हार कोहिमा और इंफाल में न हुई होती तो आजाद हिंद फौज बहुत ही आसानी  सें दिल्ली तक पहुँच जाती क्योकि बंगाल के व्यक्ति अंग्रेजो सें बहुत ही ज्यादा नाराज थें।

आजाद हिंद फौज की हार का कारण विषम मौसम परिस्थितियॉ, मूसलाधार वर्षा, अवरोध, खाद्य वस्तुओ की कमी और औषधियों का अभाव था। कई सैनिकों के हैजा, दस्त व मलेरिया जैसे रोग हो गयें थें तो कई सैनिक अन्य बीमारियों सें काल के गाल में समा गयें थें.

वें सैनिक शीघ्र ही स्वस्थ होना चाहतें थें और राईफल उठा कर फिर सें लडना चाहतें थें।

इस पराजय सें नेताजी हताश नही हुए और उन्होनें अपनें सैनिको से कहा कि हम इंफाल पर दोबारा आक्रमण करेगे। एक बार नही दस बार आक्रमण करेंगें । तुम सब लोग आजादी के लिए दीवानें हो जाओ और कर दो सब न्यौछावर।

सेना के अधिकारियों के बहुत समझानें के बाद नेताजी यह शर्त रख कर रंगून छोडनें को तैयार हुए कि जब तक वह रानी लक्ष्मीबाई रेंजीमेंट की सभी लडकियों को थाईलैंड, रेल व सडक परिवहन द्वारा नही भेज देते तब तक वह रंगून नही छोडेगे।

23 अप्रैल 1945 को यह सूचना मिली कि अंग्रेजी सेना मध्य बर्मा तक पहुंच गयी है और कुछ ही घंटो में वह बर्मा की राजधानी तक पहुंच जायेगी।

24 अप्रैल की रात को नेताजी का काफिला लारियों में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट की लडकियों को लेकर बैंकॉक की यात्रा पर निकला. जिसका उद्देश्य समस्त लडकियों को सुरक्षित रखना था। नेताजी अपनें काफिलें के साथ ही बनें रहें और उन्होनें उनके साथ ही जाना स्वीकार किया। वें तब तक लॉरी में नही बैठे जब तक उन्होनें यह सुनिश्चित नही कर लिया कि उनके हर काफिलें का सदस्य लॉरी में बैठ चुका है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बाद मेजर जनरल जमान कियानी आजाद हिंद फौज के नेता नियुक्त हुए और समस्त फौज उनकें आदेश का पालन करती थी।

उस वक्त आजाद हिंद फौज की स्थिति बडी कष्टमय थी, सैनिको को एक वक्त का ही भोजन मिलता था और उन्हे अपनी यात्रा रात के अंधेरे में ही करनी पडती थी। दिन में अंग्रेजी सैनिको सें बचनें के लिए वे जंगल में छिप जाते थें।

नेताजी नें 10 अगस्त 1945 को टेलीफोन पर सुना कि रूस नें जापान कें विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। 12 अगस्त 1945 को रात्रि में डॉ लक्षमियॉ और गणपति नें नेताजी को जापान द्वारा पराजय स्वीकार करनें का अचरज भरा समाचार सुनाया।

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए यह बहुत ही दुखद समाचार था क्योकि आजाद हिंद फौज जापान की मदद सें अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध लड रही थी और जापानियों के पराजय स्वीकार करनें के बाद आजाद हिंद फौज के सामनें एक गंभीर संकट आ खडा हुआ था।


Thursday, September 24, 2020

ऊधम सिंह का जीवन परिचय- इतने संघर्ष के बाद इन्होने जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था।

 

भारतीय इतिहास में देश पर कुर्बानी देने वाले वीरों की कमी नहीं है पर उनमें से कुछ वीर ऐसे हैं जिनको इतिहास ने इतना सम्मान नहीं दिया जितने के वे हकदार हैं। उन्हें वीरो में से एक है शहीद उधम सिंह।

 

जिन्होंने बचपन में जलियांवाला बाग हत्याकांड देखने के बाद यह प्रतिज्ञा ली थी कि वह इस हत्याकांड के दोषियों को सजा अवश्य देंगे।  इसके लिए उन्होंने 20 वर्षों तक इंतजार किया और 13 मार्च 1940 को अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।

 

आइए जानते हैं उनके जीवन और जलियांवाला बाग के बाद 21 वर्ष के संघर्ष को :

 

 ऊधम सिंह जी का बचपन

 

 ऊधम सिंह जी के जन्म स्थान के बारे में अनेक मत हैं,  उनका जन्म उत्तर प्रदेश के एटा में हुआ था। पिता का नाम चूहड़राम और माता श्रीमती नारायणी देवी थी।  लगभग सन 1880 में उनके पिता नौकरी के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश को छोड़कर पंजाब में पटियाला जाकर निवास करने लगे।

 

 ऊधम सिंह के पिताजी वहां सरदार धन्ना सिंह के यहां कार्य करने लगे, सरदार धन्ना सिंह के परिवार से प्रभावित होकर चूहड़राम और श्रीमती नारायणी देवी ने सिख धर्म अपना लिया। चूहड़राम केसधाधारी सिक्ख के रूप में सरदार टहल सिंह व उनकी पत्नी नारायणी देवी के स्थान पर श्रीमती हरनाम कौर सरदारनी बन गई।

 

 ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर सन 1899 को पटियाला, पंजाब राज्य में हुआ था।

 

माता-पिता के देहांत के बाद शिक्षा व भगत सिंह जी से मित्रता 

 

 सरदार टहल सिंह के दो पुत्र हुए, बड़े पुत्र का नाम साधु सिंह व छोटे पुत्र का नाम ऊधम सिंह था। 

 

 

 जब  साधु सिंह 10 वर्ष के थे और उधम सिंह 5 वर्ष के थे तब उनकी माता का देहावसान बीमारी के चलते हो गया।  उनके पिता यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए और 1 वर्ष पश्चात अतिसार रोग से पीड़ित होने के कारण वह भी संसार छोड़ कर चले गयें।

 

 इसके बाद सरदार चंचल सिंह ने दोनों का दाखिला अमृतसर स्थित पुतलीघर सेंट्रल खालसा अनाथालय में करा दिया।

 

बड़े भाई साधु सिंह, साधू-सन्यासियों की संगत में आने के फलस्वरुप सन्यासी बनने का निश्चय कर लिया और सन्यासियों के साथ ही चले गए।  इसके बाद पंडित जयचंद्र ही ऊधम सिंह के पिता तुल्य थे।

 

ऊधम सिंह ने अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दू का अच्छा अध्ययन किया था और 1916 में दसवीं पास की थी।

 

जब जलियांवाला बाग की घटना को ऊधम सिंह ने अपनी आंखों से स्वयं देखा

 

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में भाषण चल रहे थे तब वहां के गवर्नर सर माइकल ओ डायर के आदेश से ब्रिगेडियर जनरल ई एच डायर ने सभा पर गोलियां चलवा दी।

 इस भीषण हत्याकांड को देखकर 19 वर्षीय ऊधम सिंह पेड़ से उतरा और मातृभूमि की शपथ लेकर यह प्रतिज्ञा की कि ," मैं अपने देशवासियों के लहू की एक एक बूंद का हिसाब इस हत्याकांड के जिम्मेदार हत्यारों से चुकाऊंगा ।"

 

मृतकों में उधम सिंह ने 41 लड़कों और एक 7 सप्ताह के बच्चे को भी देखा था ।

 

जलियांवाला कांड के बाद वह बदला लेने के योजना बनाने लगे  

 

 इस घटना के बाद गिरफ्तारी से बचने के लिए ऊधम सिंह भी अन्य क्रांतिकारियों की तरह ही अमृतसर छोड़कर कश्मीर चले गए, वहां पर वह कुर्सी मेज बनाने वाली एक दुकान पर काम करने लगे । बाद में वह सुनाम लौट आए व नवंबर 1919 को अमृतसर वापस आ गए।

 

 वहां से वह 1919 के अंत में दक्षिण अफ्रीका पहुंच गए,  दक्षिण अफ्रीका में अपना काम समाप्त करके 1920 में अमेरिका पहुंचे व गदर पार्टी के संस्थापक लाला हरदयाल से मिले, वहां ऊधम सिंह ने गोली चलाना व कारतूस बनाना सीखा ।

 

एएच डायर की मृत्यु वह गवर्नर माइकल ओ डायर की सेवानिवृत्ति :-

 

 

 सन 1920 में ई एच डायर को लकवा मार गया , ऊधम सिंह डायर को मारने ही लंदन गए थे । डायर को लकवा लगने के पश्चात उसकी मृत्यु 1927 ईस्वी में हो गई ।

 किंतु पंजाब माइकल ओ डायर के अत्याचारों से परेशान हो उठा था इस कारण ब्रिटिश सरकार ने उसे पंजाब के गवर्नर के पद से मुक्त कर उसे लंदन बुला लिया ।

 

 ऊधम सिंह को यह जानकर बहुत दुख हुआ कि भारत वासियों ने उसे जिंदा वापस कैसे जाने दिया।  जनरल डायर को लकवा मारने के पश्चात अब ऊधम सिंह का एकमात्र लक्ष्य सर माइकल ओ डायर को समाप्त करना था।

 

लंदन में पढ़ाई व उसके बाद भारत में भगत सिंह के साथ कार्य करना:-

 

 ऊधम सिंह ने लंदन में इंजीनियरिंग में प्रवेश ले लिया, उसी समय उनकी मुलाकात जर्मन महिला मिस मैरी से हुई। 1923 में भगत सिंह के बुलाने पर वह भारत लौट आए व इंजीनियरिंग की परीक्षा बीच में ही छोड़ दी।

 

 भगत सिंह लाहौर के क्रांतिकारी दल का कार्यभार ऊधम सिंह को सौंपना चाहते थे अतः उन्होंने उधम सिंह को भारत बुलाने के लिए संदेश भेजा था,  ऊधम सिंह लंदन से लाहौर वायसराय ऑफ इंडिया नामक जलयान से आए थे, उस समय भगत सिंह की गणना क्रांतिकारियों में होने लगी थी जब वह लाहौर नेशनल कॉलेज में थे।

 

 भगत सिंह शादी नहीं करना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपने पिता किशन सिंह को पत्र लिखकर, ऊधम सिंह को साथ लेकर, गुप्त रूप से कानपुर में रहने को चले गए, कुछ समय तक उधम सिंह और भगत सिंह ने समाचार पत्र बेंचकर भोजन और रहने की व्यवस्था की।

 

 कुछ समय पश्चात अलीगढ़ कें शादीपुर गांव के नेशनल स्कूल में भगत सिंह को मुख्य अध्यापक व ऊधम सिंह को सहायक अध्यापक बना दिया गया।

 

अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए उनका लाहौर व लंदन आना जाना :

 

 दादी के स्वास्थ्य खराब होने की खबर को पिता किशन सिंह ने अखबार में छपाया था ताकि भगत सिंह वापस आ जाएं। भगत सिंह के वापस जाने के साथ ही ऊधमसिंह भी उनके साथ लाहौर चले गए।  भगत सिंह और ऊधम सिंह की सेवा के पश्चात दादी का स्वास्थ्य जल्दी ही ठीक हो गया।

 

 लाहौर के बाद ऊधम सिंह अमृतसर आ गए और वहां पर फर्नीचर की दुकान खोली। वह दुकान क्रांतिकारियों की गतिविधियों का अड्डा हुआ करती थी।

 

 ब्रिटिश सरकार की गिरफ्तारी के षड्यंत्र से बचने के उद्देश्य से ऊधम सिंह लंदन के लिए दोबारा रवाना हो गए।

 

 ऊधम सिंह और मिस मैरी मिश्र, रूस, फ्रांस के रेगिस्तान में घूमते हुए अमेरिका पहुंचे।

 

 अमेरिका में वह आयरिश व्यक्ति की सहायता से लंदन पहुंचे और वहीं रहने लगे।

 

कुछ समय पश्चात भगत सिंह ने ऊधम सिंह से महत्वपूर्ण विषय पर विचार विमर्श के लिए नवंबर 1926 में पत्र लिखा। वह पत्र ऊधम सिंह को दिसंबर अंत तक प्राप्त हुआ और दोनों फरवरी 1927 को लाहौर वापस आ गए।

 

ऊधम सिंह अपने साथ चार विश्वासपात्र मित्रों, विस्फोटक सामग्री ,कारतूस और कई पिस्टल को साथ लाए थे। ऊधम सिंह की भगत सिंह से भेंट नौजवान भारत सभा के प्रशिक्षण केंद्र में अन्य साथियों के साथ हुई थी ।

 

जब हथियारों के साथ पकड़े गए व 5 साल की जेल हुई

 

 उस वक्त ऊधम सिंह अमृतसर में रुके थे उन पर गुप्तचर विभाग व एक कोतवाल को शक हो गया था। स्टेशन हाउस ऑफिसर सैयद सरदार अली शाह ने अपने साथ

कई सिपाही लेकर सादी वर्दी में छापा मारने पहुंच गया,  वे लोग ऊधम सिंह को पकड़कर थाने में पूछताछ करने के लिए ले गए।

 

ऊधम सिंह से अधिक छानबीन करने पर उन्हें एक सूटकेस मिला जिसमें दो पिस्तौल और 139 कारतूस प्राप्त हुए, बाद में उन पर केस चला और उन्हें 5 वर्ष के कारावास की सजा हुई। जेल से छूटने के पश्चात वह जम्मू कश्मीर और अमरनाथ की यात्रा पर चले गए और अंत में वे अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु तीसरी बार लंदन के लिए रवाना हो गए।

 

ऊधम सिंह का तीसरी बार लंदन जाना और टैक्सी ड्राइवर के रूप में काम करना

 

 1933 के मध्य में ऊधम सिंह और मिस मैरी लंदन पहुंचे लंदन में ऊधमसिंह शेफर्ड बुश गुरुद्वारे में रहने लगे और उसी गुरुद्वारे की टैक्सी को चलाने लगे।

 

 ऊधम सिंह का परिचय वहां दो सरदार युवको महीप सिंह व आजाद सिंह से हुआ।

 

 ऊधम सिंह ने सर माइकल ओ डायर के यहां ड्राइवर के रूप में नौकरी कर ली। माइकल ओ डायर के यहां नौकरी करने का उद्देश्य उनके विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त करना था ।

 

 ऊधम सिंह माइकल ओ डायर की पुत्री गोल्डी और डायर को उसके कॉलेज से घर व घर से कॉलेज ले जाते थे।

 

ऊधम सिंह की प्रतिज्ञा पूर्ति

 

 ऊधम सिंह ने 11 मार्च 1940 को इंडिया हाउस में एक सूचना पढी कि ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एसोसिएशन सोसायटी द्वारा 13 मार्च 1940 को शाम 3:00 बजे की केक्स्टन हाल में एक विशेष सभा का आयोजन किया जा रहा है। जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में पंजाब के पूर्व गवर्नर सर माइकल ओ डायर को बुलाया गया है ।

 

 

ऊधम सिंह इस अवसर की प्रतीक्षा पिछले 20 वर्ष 7 माह से कर रहे थे।

 

 उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति करने की योजना बनाई और वह योजना मिस मैरी को बताई। मिस मैरी ने पूर्ण सहयोग करने का आश्वासन दिया ।

 

 13 मार्च 1940 के दिन समय के आधे घंटे पहले मिस मैरी को केक्स्टनटन हाल के ट्यूडर कक्ष के मुख्य द्वार पर खड़े होने का कार्यभार सौंपा गया ।

 

 13 मार्च 1940 के दिन ऊधम सिंह अपने दैनिक क्रियाकलापों से निवृत्त होकर शेफर्ड बुश गुरुद्वारे की गुरु ग्रंथ साहिब को माथा टेकने गए ।

 

 ऊधम सिंह ने सिर पर पगड़ी के स्थान पर टोप पहन लिया व जैकेट व कोट में 17 कारतूस, पैंट की जेब में 8 कारतूस रखी और 1 तेज धार वाला चाकू रख लिया। एक पिस्टल बराबर इंग्लिश डिक्शनरी में पन्नो को काटकर उसमें पिस्टल रखकर तैयार हो गए।

 

ऊधम सिंह ने केक्स्टन हाल में पहुंचकर सारा वातावरण देखा और कक्ष के दाई और दरवाजे के पास अवसर की प्रतीक्षा में बैठ गए।

 

 वह समय आ गया जब सारे व्यक्ति अपने भाषण कर चुके थे और अब माइकल ओ डायर की बारी थी।

 

 जैसे ही माइकल ओ डायर अपना वक्तव्य देने के लिए खड़े हुए ऊधम सिंह ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच से ही 6 फायर किए। दो गोलियां लगने के बाद माइकल ओ डायर वहीं पर गिर गया।

 

 सभी अपनी जान बचाकर भागने लगे, लेकिन ऊधम सिंह ने भागने की कोशिश नहीं की।

 

 हाल में ड्यूटी पर तैनात अधिकारी रॉबर्ट विलियम ने ऊधम सिंह को अपने अधिकार में ले लिया।

 

  बाद में ऊधम सिंह ने पुलिस से कहा

, " मेरा नाम ऊधम सिंह है और मैं एक इंजीनियर हूं। मैंने सर माइकल ओ डायर को अपना निशाना विरोध प्रकट करने के लिए बनाया। मैंने देखा कि अंग्रेजों के अत्याचारों से भारतीय भूखे मर रहे हैं। इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए मैंने माइकल ओ डायर को मारा और इसका मुझे कोई दुख नहीं है। "

 

 ऊधम सिंह को रात भर पुलिस हिरासत में रखा गया और प्रातः 14 मार्च 1940 को ब्रिंक्सटन जेल में भेज दिया गया।

 

 4 जून 1940 को केंद्रीय आपराधिक न्यायालय ओल्ड बेले में ऊधम सिंह पर अभियोग चलाया गया और ऊधम सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।

 

 उधम सिंह को पेंटोन विला जेल में 31 जुलाई 1940 को अत्यंत गुप्त रूप से प्रातः काल चुपचाप फांसी दे दी गई। इस प्रकार भारत मां का यह साहसी बेटा देश की सेवा में शहीद हो गया ।

 

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